रात का ये चौथा पहर
आँखो से लुटी है नींद
पर मौज में सोया शहर
बनते उलझते मेरे ख्याल
लावारिस से भटकते सवाल
कुछ इन चुभते पलो का जहर
कुछ इन अधसोए सदमो का कहर
रो धोकर बीत जाता है जैसे सब कुछ
बीतेगा ये रात का चौथा पहर
रात का ये चौथा पहर
शोर मचाता ये सन्नाटा
और मौज उड़ाता ये संसार
कौन जगाएगा इन बेवकूफो को
सफ़ेदी से लिपटी काली राजनीति को
अंधी वासना बरपा रही अपना कहर
लूटकर माँ भारती को फ़ैलाया है ज़हर
रो धोकर बीत जाता है जैसे सब कुछ
बीतेगा ये रात का चौथा पहर
बीतेगी ये काली रात
होगा जागृती का सवेरा
जब दिखेगा मनहूस सत्ताधारियों को
2 बोतल में बिकते बेहया समाज को
अंदर से मरे हुए इन जन नायको को
अपनी ही बेटियों का लुटा हुआ
और अपने बलात्कारी होने का
चीखता भयावह चहरा
